
गीता जयंती पर विशेष लेख

मार्गशीर्ष माह के शुक्ल पक्ष की एकादशी तिथि को गीता जयंती का पर्व मनाया जाता है। इस तिथि पर मोक्षदा एकादशी व्रत किया जाता है। इस वर्ष गीता जयंती 11 दिसंबर 2024 को मनाई जाएगी। इसी दिन महाभारत के युद्ध भूमि में भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को ज्ञान का मार्ग दिखाया। आज के युवा वर्ग को जानना चाहिए कि सारे वेदों का सार है उपनिषद , उपनिषदों का सार है ब्रह्मसूत्र और समस्त ग्रंथों का सार है श्रीमद्भगवद्गीता।
सर्वोपनिषदो गावो दोग्धा गोपालनन्दनः।
पार्थो वत्सः दिव्यभोक्ता दुग्धं गीतामृतं महत्॥
“सभी उपनिषदों की तुलना गाय से की गई है, ग्वाल-प्रधान के पुत्र कृष्ण ग्वाला हैं, पृथा के पुत्र अर्जुन बछड़ा हैं, तथा बुद्धिमान लोग दूध के समान भगवद्गीता के महान अमृत का आनंद लेते हैं।” गीता को, धर्म-अध्यात्म समझाने वाला अमोल काव्य कहा जा सकता है। सभी शास्त्रों का सार एक जगह कहीं यदि इकट्ठा मिलता हो, तो वह जगह है-गीता। गीता रूपी ज्ञान-गंगोत्री में स्नान कर अज्ञानी सद्ज्ञान को प्राप्त करता है। पापी पाप-ताप से मुक्त होकर संसार सागर को पार कर जाता है।
भगवद्गीता के अनमोल वचन हमें जीवन किसी भी फल का आशा न करते हुए जीवन में कैसा सफल होना है ये सिखाते है।सुनकर रोमांच होता है कि अर्जुन जैसा सर्वश्रेष्ठ विद्यार्थी ज्ञान मांग रहा है, श्रीकृष्ण जैसा असंख्य कोटि ब्रह्माण्ड नायक ज्ञान देना आरम्भ करता है और कक्षा कुरुक्षेत्र के युद्धभूमि में लगी है।भगवद्गीता का उपदेश एक ही वंश के दो परिवारों के चचेरे भाइयों कौरव और पाण्डवों के मध्य हुए महाभारत के युद्ध की रणभूमि पर दिया गया।कुरुक्षेत्र के युद्धक्षेत्र में अपने बंधुओं, मित्रों और गुरुओं को देखकर अर्जुन को युद्ध करने में संकोच हो रहा है। वह समझ नहीं पा रहे है कि वह अपने ही लोगों को कैसे मार सकता हूं । इस कारण वह युद्ध करने से मना कर देते है और अपने रथ से उतरकर बैठ जाते है।
अर्जुन की इस मनोदशा को समझते हुए भगवान कृष्ण उसे उपदेश देने लगते हैं। वह उसे बताते हैं कि युद्ध करना उसका कर्तव्य है और उसे इस कार्य से पीछे नहीं हटना चाहिए। कृष्ण अर्जुन को कर्म योग का ज्ञान देते हैं और उसे बताते हैं कि मनुष्य को फल की चिंता किए बिना अपना कर्तव्य निभाना चाहिए।अर्जुन को अवसाद से निकालने के लिए कृष्ण को गीता उपदेश देना पड़ा था, इसलिए पहले अध्याय का नाम “अर्जुन विषाद योग” रखा गया। अर्जुन कांप रहा है।
आचार्या: पितर: पुत्रास्तथैव च पितामहा: |
मातुला: श्वशुरा: पौत्रा: श्याला: सम्बन्धिनस्तथा ||
एतान्न हन्तुमिच्छामि घ्नतोऽपि मधुसूदन |
अपि त्रैलोक्यराज्यस्य हेतो: किं नु महीकृते ||
आचार्य,पिता ,पुत्र उसी प्रकार पितामह ,मामा,ससुर ,पौत्र ,साले,तथा अन्य भी जितने भी सम्बन्धी हैं ,यदि मुझपे प्रहार करें तो भी मैं इनको मारना नहीं चाहता। हे मधुसूदन ,मुझे त्रिलोकी का राज्य मिलता हो तो भी मैं इनको मारना नहीं चाहता। फिर पृथ्वी के लिए तो इनको मारूं ही क्यों? यदि हमारे ये कुटुम्बी जन अपनी अनिष्ट निवृत्ति के लिए क्रोध में आकर मेरे पर प्रहार करके मेरा वध भी करना चाहें तो भी मैं अपनी अनिष्ट निवृत्ति के लिए क्रोध में आकर इनको मारना नहीं चाहता। क्रोध और लोभ में आकर मुझे नरकों का दरवाजा नहीं खुलवाना है अपने लिए।
भगवान् अर्जुनसे कहते हैं –
न त्वेवाहं जातु नासं न त्वं नेमे जनाधिपाः।
न चैव न भविष्यामः सर्वे वयमतः परम्।।
न तो ऐसा ही है कि मैं किसी कालमें नहीं था, तू नहीं था अथवा ये राजालोग नहीं थे और न ऐसा ही है कि इससे आगे हम सब नहीं रहेंगे।।
देहिनोऽस्मिन्यथा देहे कौमारं यौवनं जरा।
तथा देहान्तरप्राप्तिर्धीरस्तत्र न मुह्यति।।
जैसे जीवात्माकी इस देहमें बालकपन, जवानी और वृद्धावस्था होती है, वैसे ही अन्य शरीरकी प्राप्ति होती है; उस विषयमें धीर पुरुष मोहित नहीं होता।।अर्थात् ये शरीर तो ऐसे ही होते हैं, जैसे कि मनुष्यके लिये वस्त्र होते हैं –
वासांसि जीर्णानि यथा विहाय
नवानि गृह्णाति नरोऽपराणि।
तथा शरीराणि विहाय जीर्णा –
न्यन्यानि संयाति नवानि देही।।
जैसे मनुष्य पुराने वस्त्रोंको त्यागकर दूसरे नये वस्त्रोंको ग्रहण करता है, वैसे ही जीवात्मा पुराने शरीरोंको त्यागकर दूसरे नये शरीरोंको प्राप्त होता है।।
जैसे मनुष्य वस्त्र नहीं हो सकता है, वैसे ही हम शरीर नहीं हो सकते हैं; हम तो आत्मा ही हैं और यह आत्मा ही –
उपद्रष्टानुमन्ता च भर्ता भोक्ता महेश्वरः।
परमात्मेति चाप्युक्तो देहेऽस्मिन्पुरुषः परः।।
इस देह में स्थित यह आत्मा वास्तव में परमात्मा ही है। वह साक्षी होने से उपद्रष्टा और यथार्थ सम्मति देनेवाला होने से अनुमन्ता, सबका धारण-पोषण करनेवाला होने से भर्ता, जीवरूपसे भोक्ता, ब्रह्मा आदिका भी स्वामी होनेसे महेश्वर और शुद्ध सच्चिदानन्दघन होने से परमात्मा – ऐसा कहा गया है।।और यही आत्मा अर्थात् परमात्मा ही –
अविभक्तं च भूतेषु विभक्तमिव च स्थितम्।
भूतभर्तृ च तज्ज्ञेयं ग्रसिष्णु प्रभविष्णु च।।
वह परमात्मा विभागरहित एक रूपसे आकाशके सदृश परिपूर्ण होनेपर भी चराचर सम्पूर्ण भूतोंमें विभक्त-सा स्थित प्रतीत होता है; तथा वह जाननेयोग्य परमात्मा विष्णुरूपसे भूतोंको धारण-पोषण करनेवाला और रुद्ररूप से संहार करनेवाला तथा ब्रह्मारूपसे सबको उत्पन्न करनेवाला है।। ये शरीर ही असत् होते हैं; क्योंकि –
अव्यक्तादीनि भूतानि व्यक्तमध्यानि भारत।
अव्यक्तनिधनान्येव तत्र का परिदेवना।।
हे अर्जुन! सम्पूर्ण प्राणी जन्मसे पहले अप्रकट थे और मरनेके बाद भी अप्रकट हो जानेवाले हैं, केवल बीचमें ही प्रकट हैं; फिर ऐसी स्थिति में क्या शोक करना है?
इसीलिये ही इन असत् रूप शरीरोंकी सत्ता नहीं है और सत् स्वरूप हमारा अर्थात् आत्माका अभाव नहीं होता है –
नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः।
उभयोरपि दृष्टोऽन्तस्त्वनयोस्तत्त्वदर्शिभिः।।
असत् वस्तुकी तो सत्ता नहीं है और सत् का अभाव नहीं है। इस प्रकार इन दोनोंका ही तत्त्व तत्त्वज्ञानी पुरुषोंद्वारा देखा गया है।
क्लैब्यं मा स्म गमः पार्थ नैतत्त्वय्युपपद्यते।
क्षुद्रं हृदयदौर्बल्यं त्यक्त्वोत्तिष्ठ परन्तप ॥
है पार्थ ! नपुंसक मत बनो। यह तुम्हारे लिए उचित नहीं। हे शत्रु का दमन करने वाले मन की दुर्बलता त्यागकर खड़े होओ।
हतो वा प्राप्स्यसि स्वर्गं जित्वा वा भोक्ष्यसे महीम्। तस्मादुत्तिष्ठ कौन्तेय युद्धाय कृतनिश्चयः ॥
यदि युद्ध में वीरगति को प्राप्त होते हो तो तुम्हें स्वर्ग मिलेगा और यदि विजयी होते हो तो धरती का सुख भोगोगे इसलिए उठो, हे कौन्तेय और निश्चय करके युद्ध करो।
भगवद्गीता की शिक्षाएं आज भी उतनी ही प्रासंगिक हैं जितनी कई युगों पहले थीं। गीता में दिए गए उपदेशों का पालन करके, हम अपने जीवन में क्रांतिकारी परिवर्तन ला सकते हैं।गीता हमें संसार से नहीं बल्कि गलत और स्वार्थी कार्यों से त्याग करना सिखाती है। गीता की महानता यह है कि यह व्यावहारिक जीवन के लिए एक मार्गदर्शक है और यह हमें बताती है कि संसार में कैसे जीना है। केवल मूर्ख ही कृष्ण को सामान्य मनुष्य मान सकता है। कृष्णभावनाभावित व्यक्ति को मूर्खों से मोहग्रस्त नहीं होना चाहिए; उसे भगवद्गीता पर सभी अनधिकृत टिप्पणियों और व्याख्याओं से बचना चाहिए तथा दृढ़ निश्चय और दृढ़ता के साथ कृष्णभावनाभावित मार्ग पर आगे बढ़ना चाहिए। ब्रह्मा सृजनकर्ता हैं, विष्णु पालनकर्ता हैं और शिव संहारक हैं। सनातन धर्म को कृष्ण ने भगवद्गीता में प्रस्तुत किया है, तथा इसमें कृष्ण स्वयं को एकमात्र परमेश्वर होने का दावा करते हैं।
कृष्ण कहते हैं- मैं ही समस्त आध्यात्मिक तथा भौतिक जगत का मूल हूँ। सब कुछ मुझसे ही उत्पन्न होता है। जो बुद्धिमान लोग इसे भली-भाँति जानते हैं, वे मेरी भक्ति में लीन रहते हैं तथा पूरे हृदय से मेरी पूजा करते हैं।समस्त वैदिक साहित्य इस बात पर सहमत है कि कृष्ण ब्रह्मा, शिव और अन्य सभी देवताओं के स्रोत हैं। अथर्ववेद गोपाल-तपनी उपनिषद- १ / २४ में कहा गया है, ‘यो ब्राह्मणं विदधति पूर्वं यो वै वेदं च गपयति स्म कृष्ण।’ यह कृष्ण ही थे जिन्होंने आरंभ में ब्रह्मा को वैदिक ज्ञान की शिक्षा दी तथा अतीत में वैदिक ज्ञान का प्रसार किया।
फिर नारायण उपनिषद कहता है, ‘अथ पुरुषो हा वै नारायणो कामायता प्रजाः सृजयेति।‘ तब परम पुरुषोत्तम नारायण ने जीवों की रचना करने की इच्छा की। नारायण उपनिषद आगे कहता है, ‘नारायणद ब्रह्म जयते, नारायणद प्रजापतिः प्रजायते, नारायणद इन्द्रो जयते, नारायणद अस्तौ वसावो जयन्ते, नारायणद एकादश रूद्र जयन्ते, नारायणद द्वादसादित्यः।’अर्थात, ‘नारायण से ब्रह्मा उत्पन्न हुए, और नारायण से ही कुलपिता उत्पन्न हुए। नारायण से इंद्र उत्पन्न हुए, नारायण से आठ वसु उत्पन्न हुए, नारायण से ग्यारह रुद्र उत्पन्न हुए, नारायण से बारह आदित्य उत्पन्न हुए।’ यह नारायण कृष्ण का विस्तार है।
आगे कहा गया है, ‘ब्राह्मण्यो देवकी-पुत्रः।”देवकी के पुत्र, कृष्ण, सर्वोच्च व्यक्तित्व हैं।’
•डॉ विद्यासागर उपाध्याय
राष्ट्रीय पार्षद
शंकराचार्य परिषद