
नई दिल्ली। बिहार में मतदाता सूची के विशेष गहन पुनरीक्षण को लेकर सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई जारी है। देश की सर्वोच्च अदालत ने निर्वाचन आयोग की इस पहल को गलत नहीं ठहराया, लेकिन इसके समय पर सवाल उठाए हैं।
कोर्ट ने कहा कि मतदाता सूची से गैर-नागरिकों को हटाने का प्रयास उचित है, लेकिन यह प्रक्रिया अगर चुनाव से कुछ महीने पहले शुरू की जाती है, तो उसकी मंशा और प्रभाव पर सवाल उठना स्वाभाविक है।
जस्टिस सुधांशु धूलिया और जस्टिस जॉयमाल्या बागची की पीठ ने यह स्पष्ट किया कि चुनाव आयोग को वोटर लिस्ट की शुद्धता बनाए रखने का पूरा अधिकार है, लेकिन इसकी टाइमिंग लोकतांत्रिक प्रक्रिया पर असर डाल सकती है।
इस मामले में सुप्रीम कोर्ट के समक्ष 10 से अधिक याचिकाएं दायर की गई हैं। प्रमुख याचिकाकर्ताओं में एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स (एडीआर) के साथ-साथ कई विपक्षी दलों के सांसद शामिल हैं। इनमें आरजेडी के मनोज झा, टीएमसी की महुआ मोइत्रा, कांग्रेस के केसी वेणुगोपाल, एनसीपी की सुप्रिया सुले, भाकपा के डी. राजा, सपा के हरिंदर सिंह मलिक, शिवसेना (उद्धव गुट) के अरविंद सावंत और झामुमो व माले के नेता भी शामिल हैं।
इन सभी नेताओं ने मतदाता सूची के इस विशेष पुनरीक्षण अभियान को चुनाव से पहले एक ‘राजनीतिक कदम’ बताते हुए इसे रद्द करने की मांग की है।
उनका कहना है कि इस प्रक्रिया के तहत 7.9 करोड़ से अधिक नागरिकों की पात्रता पर सवाल उठेंगे और मतदाता पहचान पत्र या आधार कार्ड जैसी पहचान भी पर्याप्त नहीं मानी जा रही है।
निर्वाचन आयोग की ओर से वरिष्ठ अधिवक्ताओं राकेश द्विवेदी, केके वेणुगोपाल और मनिंदर सिंह ने पक्ष रखते हुए कहा कि आयोग का उद्देश्य सिर्फ यह सुनिश्चित करना है कि मतदाता सूची में कोई भी अपात्र व्यक्ति शामिल न रहे।
सुप्रीम कोर्ट ने फिलहाल आयोग को राहत तो दी है, लेकिन यह भी स्पष्ट किया है कि लोकतंत्र की पारदर्शिता और निष्पक्षता के मद्देनज़र इस प्रक्रिया की टाइमिंग का गंभीरता से मूल्यांकन होना आवश्यक है। मामले की अगली सुनवाई जल्द तय की जाएगी।
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