
रांची। झारखंड हाई कोर्ट ने एक महत्वपूर्ण फैसले में स्पष्ट किया है कि यदि कोई व्यक्ति ‘स्पेशल मैरिज एक्ट, 1954’ के तहत शादी करता है, तो उस पर किसी भी व्यक्तिगत या धार्मिक कानून के बजाय यही कानून सर्वोपरि होगा। अदालत ने पहली पत्नी के जीवित रहते दूसरी शादी करने वाले धनबाद के एक पैथोलॉजिस्ट की उस दलील को खारिज कर दिया, जिसमें उसने इस्लामिक कानून के तहत चार शादियों को वैध बताते हुए अपने दूसरे विवाह को सही ठहराने की कोशिश की थी।
यह मामला धनबाद के रहने वाले पैथोलॉजिस्ट मोहम्मद अकील आलम से जुड़ा है। आलम ने 4 अगस्त, 2015 को स्पेशल मैरिज एक्ट के तहत दूसरी शादी की थी। हालांकि, कुछ महीनों बाद ही उसकी दूसरी पत्नी उसे छोड़कर अपने मायके देवघर चली गई। इसके बाद अकील ने देवघर की फैमिली कोर्ट में पत्नी को वापस बुलाने के लिए वैवाहिक अधिकारों की बहाली की याचिका दायर की।
सुनवाई के दौरान पत्नी ने अदालत को बताया कि अकील आलम पहले से ही शादीशुदा था और उसकी पहली पत्नी से दो बेटियां भी हैं। उसने यह भी आरोप लगाया कि अकील ने शादी के समय यह जानकारी छिपाई थी और उस पर अपने पिता से जायदाद नाम कराने का दबाव बनाया। मांग पूरी न होने पर उसके साथ मारपीट भी की गई।
फैमिली कोर्ट में अकील ने खुद यह स्वीकार किया कि दूसरी शादी के वक्त उसकी पहली पत्नी जीवित थी। अदालत ने पाया कि उसने शादी के रजिस्ट्रेशन के समय यह तथ्य जानबूझकर छिपाया था। दिलचस्प बात यह है कि पहले अकील ने मेंटेनेंस (भरण-पोषण) से बचने के लिए अपनी दूसरी शादी को अवैध बताया था, लेकिन बाद में इसी शादी को वैध बताकर पत्नी को वापस बुलाने की मांग करने लगा।
फैमिली कोर्ट के फैसले के खिलाफ अकील ने झारखंड हाई कोर्ट का दरवाजा खटखटाया। जस्टिस सुजीत नारायण प्रसाद और जस्टिस राजेश कुमार की खंडपीठ ने फैमिली कोर्ट के फैसले को सही ठहराते हुए कहा कि स्पेशल मैरिज एक्ट की धारा 4(ए) स्पष्ट रूप से कहती है कि विवाह के समय किसी भी पक्ष का कोई जीवनसाथी (पति या पत्नी) जीवित नहीं होना चाहिए।
कोर्ट ने अपने फैसले में कहा, यह एक्ट एक ‘नॉन ऑब्स्टांटे’ क्लॉज के साथ शुरू होता है, जिसका अर्थ है कि स्पेशल मैरिज एक्ट के प्रावधान किसी भी अन्य कानून, चाहे वह धार्मिक ही क्यों न हो, पर वरीयता रखेंगे। हाई कोर्ट ने अकील की याचिका को खारिज करते हुए उसे बड़ा झटका दिया है।