पितृपक्ष और श्राद्ध : पितृपक्ष चल रहा है इस दौरान पितरों का यादकर उन्हे पानी और भोजन अर्पित कर श्राद्ध किया जाता है। इस दौरान पितरों की आत्मा को शांति प्रदान करने के लिए विशिष्ट कर्म किए जाते हैं, जिसे श्राद्ध कहते हैं। श्राद्ध असल में पितरों को आहार पहुंचाने का माध्यम माना जाता है। मृत व्यक्ति की आत्मा की शांति के लिए जब श्रद्धायुक्त होकर तर्पण, पिंड और दाना आदि किया जाता है, तो उसे श्राद्ध कहा जाता है।
शास्त्रों के अनुसार अर्यमा पितरों के देवता हैं। बिना इनके नाम के तर्पण अधूरा माना जाता है। गरुड़ पुराण में लिखा है कि अर्यमा, ऋषि कश्यप और देवमाता अदिति के पुत्र हैं। वे आदित्य देवताओं में से एक और इंद्र के भाई भी माने जाते हैं। पितृलोक में अर्यमा को न्यायधीश और राजा का स्थान प्राप्त है।अर्यमा को ‘अर्यमन’ भी कहा जाता है। वे उत्तरा फाल्गुनी नक्षत्र में निवास करते हैं। आकाश गंगा उनके मार्ग का प्रतीक मानी जाती है।
पौराणिक मान्यता है कि चंद्रमंडल में स्थित पितृलोक में अर्यमा सभी पितरों के अधिपति हैं। वे हर कुल और परिवार के पितरों को पहचानते हैं और उन्हीं की तृप्ति का ध्यान रखते हैं।पितृपक्ष के दौरान जलदान और तर्पण करते समय अर्यमा का नाम लिया जाता है। यज्ञ में मित्र (सूर्य) और वरुण (जल) देवता के साथ वे भी हव्य स्वीकार करते हैं, वहीं श्राद्ध में स्वधा का कव्य भी।
मान्यता है कि अर्यमा के प्रसन्न होने से ही पितरों की तृप्ति होती है। एक आम गलतफहमी है कि केवल पुत्र ही पितरों का श्राद्ध कर सकते हैं। शास्त्रों में यह साफ कहा गया है कि पुत्रियां और पौत्र भी तर्पण कर सकती हैं। पितर चाहे जिस योनि में हों, वे अपने वंशजों द्वारा किया गया अर्पण स्वीकार करते हैं। श्राद्ध से उन्हें मुक्ति और संतोष मिलता है, और परिवार पर उनका आशीर्वाद बरसता है।
पितृपक्ष सिर्फ एक धार्मिक कर्मकांड नहीं बल्कि अपने पूर्वजों के प्रति सम्मान और कृतज्ञता का प्रतीक है। अर्यमा की उपासना और पितरों का तर्पण करने से न केवल पितरों की आत्मा तृप्त होती है बल्कि वंशजों के जीवन में भी सुख-समृद्धि आती है।
