
— के.के. मिश्रा, संवाददाता।
संत कबीर नगर। “अंधेर नगरी चौपट राजा” यह कहावत संतकबीरनगर जिले के विकास भवन पर बिल्कुल सटीक बैठती है। यहाँ उर्दू अनुवादक के पद पर नियुक्त बाबू अशफाक का कारनामा किसी से छिपा नहीं है।
बसपा शासनकाल में विधायक मोहम्मद ताबिश खान की शिकायत पर, उनकी कथित गलत गतिविधियों में सहयोग के कारण, उन्हें हटाया गया था। लेकिन जैसे ही सपा की सत्ता में वापसी हुई, उन्हें पुनः बुला लिया गया। तब से लेकर अब तक वे अंगद की तरह विकास भवन में नाजीर के पद पर जमे हुए हैं।
वर्तमान में वे डीआरडीए, तीनों विधानसभा क्षेत्रों की विधायक निधि, सोशल ऑडिट और मनरेगा योजनाओं का चार्ज लिए हुए पाँच पटलों का कार्य देख रहे हैं। सूत्रों का कहना है कि बाबू अशफाक को कभी अपनी कुर्सी पर बैठकर काम करते नहीं देखा गया। उनका समय टहलने और ब्लॉक स्तरीय अधिकारियों व कर्मचारियों के बीच तालमेल बैठाने में ही गुजरता है, जिसके एवज में वे सुविधा शुल्क वसूलते हैं और वरिष्ठ अधिकारियों की आवभगत में लगे रहते हैं।
यही नहीं, सूत्रों का यह भी दावा है कि जिले के सभी ब्लॉकों में चल रहे सोशल ऑडिट से प्रत्येक ग्राम पंचायत से कम से कम ₹10,000 की वसूली का मौखिक निर्देश बाबू द्वारा दिया जाता है। यह राशि सोशल ऑडिट टीम और ग्राम प्रधानों से मिलकर वसूली जाती है। यानी सोशल ऑडिट के नाम पर ग्राम प्रधानों का शोषण किया जा रहा है। इस खेल में कुछ तथाकथित मोबाइलिंग पत्रकार भी शामिल बताए जाते हैं, जो अपने-अपने समूह बनाकर ग्राम प्रधानों का शोषण करवाने में सक्रिय रहते हैं।
जिला प्रशासन और विकास भवन से जुड़े अधिकारी इस पर ध्यान नहीं देते क्योंकि सबको सुविधा शुल्क का हिस्सा मिलता है। यही कारण है कि यह गोरखधंधा खुलेआम फल-फूल रहा है।
कभी-कभी जिला विकास अधिकारी क्षेत्रीय दौरे पर जरूर आते हैं, लेकिन हालात जस के तस बने रहते हैं। जबकि सरकार जीरो टॉलरेंस की नीति पर काम करने का दावा करती है, जमीनी हकीकत इससे बिल्कुल उलट है। कभी बाबू जीरो बैलेंस का उल्लंघन करते दिखाई देते हैं, कभी अधिकारी मनमानी करते हैं और कभी लेखपाल विशेष दस्तों के हत्थे चढ़ जाते हैं। यही है “सबका साथ, सबका विकास और सुशासन” की हकीकत, जहां जनता की बजाय सुविधा शुल्क की संस्कृति हावी है।
विकास भवन पर वर्षों से जमे उक्त बाबू अशफाक ही इन कारनामों के सूत्रधार माने जाते हैं। उन्हीं के जरिए सोशल ऑडिट के बहाने ग्राम प्रधानों का शोषण किया जाता है। सरकार जहां एक ओर ईमानदारी और पारदर्शिता की नीति पर जोर देती है, वहीं दूसरी ओर इसी विकास भवन से खुलेआम लूट का खेल चलता है।
तबादला नीति को ताक पर रखकर जहाँ अन्य कर्मचारियों के तबादले कर दिए गए, वहीं यह बाबू 12 वर्षों से विकास भवन में जमे हुए हैं। आश्चर्य की बात यह है कि जिला प्रशासन का कहना है कि पूरे जनपद में इतना “सुयोग्य कर्मचारी” और कोई नहीं मिला जिसे इस स्थान पर नियुक्त किया जा सके।
यह स्पष्ट करता है कि शासनादेश और जीरो टॉलरेंस की नीति केवल कागज़ों तक सीमित है, जबकि वास्तविकता में बाबू संस्कृति और सुविधा शुल्क ही व्यवस्था को चला रहे हैं।