छतरी का आशय :-
छतरी का आशय मृत्यु-स्मारक/समाधि से होता है । यह मुख्यतः दो प्रकार की होती है- एक छोटे आकार की छतरी और दूसरा उससे थोड़ी विशाल और एक श्रेणी ऊपर देवल या मंदिर के रुप आकर की संरचना। देवल अति-महत्वपूर्ण व्यक्तियों योद्धाओं और लोक-देवी – देवताओं की स्मृति में बनाया जाता है। छतरी निर्माण के पश्चात उसपर सम्बंधित व्यक्ति के नाम का शिलालेख स्थापित किया जाता है। इस शिलालेख में जिस व्यक्ति की छतरी/देवल है उसका नाम ,उसके पूर्वजों का नाम, व्यक्ति का जन्म दिन ,मृत्यु दिन एवं सम्पूर्ण जीवन का मुख्य मुख्य वृतांत और समाज के प्रति उस व्यक्ति का योगदान आदि लिखा जाता है। जब किसी राजा महाराजा रानी महारानी अथवा उनके अधीनस्थ जागीरदारों या उच्चाधिकारियों का निधन हो जाता है तो जिस स्थान पर उनको मुखाग्नि दी जाती उस स्थान पर उनकी छतरी का निर्माण करवा दिया है।
छतरी में सबसे नीचे चौकोर अथवा आठ कोनों का चबूतरा बनाया जाता है। इस चबूतरे के ऊपर दूसरे गोल चबूतरे बनाये जाते हैं। फिर इन चबूतरों पर छः या आठ स्तम्भ लगा के उस के ऊपर गुम्बद-नुमा छतरी लगाई जाती है। इन चबूतरों स्तम्भों छतरियों के पत्थरों की नक्काशी और बनावट राजपूती/ राजस्थानी स्थापत्य कला का शानदार बेजोड़ और उत्कृष्ट नमूना होता है।
सती जीवराणी देवी की छतरी छपिया
छपैया में बसे इटार पांडेय जो गोरखपुर के सहजनवा से यहां आए हैं। उनके वंश के मूल पुरुष का नाम रामप्रसाद पांडे मिलता है। इस पंथ के एक पावर प्लांट प्रेजेंटेशन में इसके समानांतर या अगली पीढ़ी में घरनिघर पाण्डे नेपाल में रहने के लिए चले गए उल्लखित है। अगले नाम की जोड़ी में बालकराम तुर्वाधि और जीवराणी बाई का नाम उल्ल्खित है। इसी में कई पीढ़ियों के बाद क्रमशः कृष्णशर्मा – भवानीबाई (स्वामी नारायण प्रभु के परदादा परदादी या परनाना परनानी) महत्त्व पूर्ण नाम है। अगले क्रम में बालशर्मा- भाग्यवती (स्वामी नारायण प्रभु के दादा दादी) और फिर भक्ति धर्मदेव (स्वामी नारायण प्रभु के माता पिता) का नाम आता है।
धर्मदेव का वास्तविक नाम देवशर्मा या हरिप्रसाद था,जिनका जन्म संवंत 1796, कार्तिक हुआ था। भक्तिमाता, जिन्हें मूर्ति या सुदी एकादशी (प्रबोधनी) को इटार में प्रेमवती के नाम से भी जाना जाता है और जिनका जन्म का नाम बाला था, जिनका जन्म छप्पैया में संवत् 1798, कार्तिक सुदी पूनम को हुआ था।
भक्तिमाता के पिता का नाम कृष्णशर्मा और माता का नाम भवानी था। कृष्ण शर्मा के कोई पुत्र नहीं था, इसलिए उन्होंने धर्मदेव के पिता बाल शर्मा से अनुरोध किया कि क्या वे धर्मदेव और भक्तिमाता को विवाह के बाद छप्पैया में रहने की अनुमति देंगे? बालशर्मा ने इस अनुरोध को स्वीकार कर लिया और उसका सम्मान करते हुए उन्हें छपिया में बसने की अनुमति प्रदान कर दी।
इस प्रकार हम देखते हैं कि बालकराम तुर्वाधि और जीवरानीबाई बाल प्रभु के (दाहीमां= चिरस्थाई) पूर्वज परदादा परदादी या परनाना परनानी के रूप में पूज्य अवतारित हुए हैं। इस सूची में बाल प्रभु के भाई बहन और भतीजों के नाम इस क्रम में मिलते हैं। रामप्रताप, सुवासनीबाई ,इच्छाराम, घनश्याम, नंदराम, तत्तलोरराम ,सीतारमी ,गोपालजी, बद्रीनाथ, वृंदावनप्रसाद और बाल प्रभु के प्रथम उत्तराधिकारी अहमदाबाद गादी के आचार्य अयोध्या प्रसाद जी महाराज का नाम उल्लिखित है। एक और नाम रघुवीर का भी इसमें दर्ज है जो इनके दुसरे वड़ताल गादी के आचार्य बने हैं।
बालकराम तुर्वाधि जीवराणी बाई स्मारक
इस वंश वृक्ष बालकराम तुर्वाधि और जीवराणी बाई के स्मारक के रूप में यह प्रसादी स्थल बहुत ही पावन तीर्थ स्थल है। जीवराणी के तेंदुवा रानीपुर छपिया की समाधि पर इस स्मारक को बनाने के उद्देश्य इस प्रकार उत्कीर्ण किया हुआ है –
छपिया पुर में भक्तिमाता के( दाहीमां= चिरस्थाई ) दादी /नानी जीवराणी बाई ने अष्टाक्षर मंत्र (ॐ नमो नारायणाय ) का जप कराया था । तुम्हारे पुत्र कृष्ण शर्मा और भवानी की बेटी भक्ति माता के उदर से अवतारी पुरुष ( घनश्याम बालप्रभु)। का जन्म होगा। जो अनेक अदभुत चरित्र करके यहां अदृश हुए । बाद में यहां जीवराणी देवी का अपने पति के साथ अंतिम संस्कार किया गया था। उनकी स्मृति स्थल के रुप में में राजेंद्र प्रसाद महराज ने और छपिया मंदिर महाराज हरिकृष्ण दास तथा भुज मंदिर के महंथ पुरानी स्वरुप दास जी ने संवत 2055 में इस छतरी का निर्माण कराया।
लेख जो मेरे द्वारा पढ़ा जा सका वह कुछ इस प्रकार है —
“सति जिवराणी देवी
का छुपयापुरमा भवितमातानां दाहीनां जीराणीवा अंत समये हाथमां माथा। अष्टाक्षरसयनो जाप करवा लाग्यांत्यारे साक्षात् पूर्ण पुरुषोत्तम जगबाने र्शन आपी ने होके कप्यू के तमारा पुत्र कृष्णशार्माना पुत्री भक्ति देवीने यां सर्वे अवतारना अवतारी भगवान ओवा अमो प्रगट धड़ नर्वे जीवोना कल्याणकारी अर्वा अनेक अद्भूत चरित्रो करीशु अनुवः दात्त जपी -गवान अदृश्यथया पछी जीव राणी वाजे पनि साये देह. पारने नवन्त्रनो आंग्रे संस्कार अहिं कर्यो हो तेनी स्मृती घाटे आचार्य श्री राजेन्द्र पसादजी महाराजनी ने छपैया मंदिर ना महंत शास्त्री हरि कृष्ण दास भुज स्थान देना महंत पुराणी हरिरूप दासजी नी नपर वा अ.ना. जादवा हरजी कस.प. सामबाई सुत हीर तस्वीरवार आचीनी सेवाक संवत २०५५।”
लेखक परिचय
(लेखक भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण, में सहायक पुस्तकालय एवं सूचनाधिकारी पद से सेवामुक्त हुए हैं. वर्तमान समय में उत्तर प्रदेश के बस्ती नगर में निवास करते हुए सम-सामयिक विषयों, साहित्य, इतिहास, पुरातत्व, संस्कृति और अध्यात्म पर अपना विचार व्यक्त करते रहते हैं।)