

आचार्य डॉ. राधेश्याम द्विवेदी
जीवन परिचय: अनेक-अनेक कालजयी कविताओं की रचना करने वाले स्मृति शेष श्री सर्वेश्वर दयाल सक्सेना का जन्म बस्ती शहर के पिपरा शिव गुलाम नामक मोहल्ले में श्री विश्वेश्वर दयाल सक्सेना जी के घर 15 सितम्बर, 1927 को हुआ था। पिता श्री विश्वेश्वर दयाल जी ने बड़ी मेहनत से मालवीय रोड बस्ती स्थित अनाथालय के पास एक छोटा सा घर बनवाया था। उनके साथ उनके भाई श्री श्रद्धेश्वर दयाल सक्सेना और उनके पुत्र संजीव व संजय का परिवार भी रहता था। सर्वेश्वर जी की आरंभिक शिक्षा-दीक्षा भी ज़िला बस्ती में ही हुई। जब वे बस्ती के राजकीय हाईस्कूल में नवीं कक्षा में पढ़ रहे थे, राजनीतिक चुहलबाजी और विद्रोही प्रकृति के कारण उन्हें कॉलेज से निकाल दिया गया। उन्हें एंग्लो संस्कृत हाईस्कूल, बस्ती के प्रधानाचार्य श्री चक्रवर्ती ने शरण दी। इसी विद्यालय से सर्वेश्वर जी ने 1941 में हाईस्कूल की परीक्षा उत्तीर्ण की। मालवीय रोड के नए घर में सर्वेश्वर के छोटे भाई एवं छोटी बहन का जन्म हुआ था । इस दौरान सर्वेश्वर जी की माँ जो प्राध्यापिका थी, का तबादला बस्ती से बांसगांव – गोरखपुर और फिर वाराणसी हो गया। सर्वेश्वर भी अध्ययन के लिए अपनी माँ के साथ वाराणसी चले गए। 1943 में उन्होंने वाराणसी के क्वींस कॉलेज से इन्टर मीडियट की परीक्षा उत्तीर्ण की। सन 1944-45 में आर्थिक विपन्नता और बहन की शादी हेतु पैसा एकत्र करने हेतु सर्वेश्वर ने पढ़ाई छोड़ दी थी।
ग्रामीण-कस्बाई परिवेश तथा निम्न मध्यवर्ग की आर्थिक विसंगतियों के बीच सर्वेश्वर का व्यक्तित्व पका एवं निखरा था। गरीबी एवं संघर्षशील जीवन की उनके व्यक्तित्व पर गहरी छाप पड़ी। उनके मन में गहन मानवीय पीड़ा बोध तथा आम आदमी से लगाव था। दिल्ली में रहने के बावजूद बचपन की अनुभूति उनके साथ बनी रहीं। सर्वेश्वर के पिता गांधीवादी विचारों से प्रभावित थे। मां के प्राध्यापिका होने से उनमें अच्छे संस्कार एवं लोगों के प्रति संवेदना के बीज उगे। व्यवस्था एवं यथास्थितिवाद के खिलाफ हमेशा खड़े रहे। पारिवारिक जिम्मेदारियों, मां-पिता की मृत्यु ने सर्वेश्वर की जीवनचर्या ही बदल दी। सर्वेश्वर ने बस्ती के खैर इण्डस्ट्रियल इण्टर कॉलेज में नौकरी भी की। यहाँ उन्हें उस जमाने में साठ रुपए प्रतिमाह वेतन प्राप्त हो रहा था। वे इसके बाद ज्यादा दिनों तक बस्ती न रह पाए।
उनकी दिली तमन्ना कुछ कर दिखाने की थी। इसी अभिलाषा को हृदय में संजोए वे बस्ती से प्रयाग पहुंच गए। इलाहाबाद से उन्होंने बी.ए. और सन् 1949 में एम.ए. की परीक्षा उत्तीर्ण की। 1949 का यह साल पत्रकार सर्वेश्वर के मर्मान्तक पीड़ा देने वाला साबित हुआ और उनकी प्यारी माँ अपने स्वास्थ्य एवं आर्थिक विपन्नता को झेलते हुए उनसे हमेशा के लिए बिछुड़ गई। उस वर्ष घोर दुःख एवं विपन्नता को सहते हुए सर्वेश्वर किसी प्रकार लगभग चार माह अपने पिता के साथ बस्ती रहे। यहीं उन्होंने प्रख्यात उर्दू शायर और सकसेरिया इण्टर कालेज के पूर्वप्राचार्य श्री ताराशंकर ‘नाशाद’ के साथ ‘परिमल’ नामक (साहित्यिक संस्था) की स्थापना की। उनके काव्य-लेखन की सक्रियता 1951 से शुरू हुई। ‘परिमल गोष्ठी’ में उनकी चर्चा बढ़ी और उनमें नई कविता की पर्याप्त संभावनाएँ देखी गई।
बस्ती की माटी का असर:-
बस्ती की माटी से ही वे उगकर अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर ख्याति प्राप्त करने में सफल हुए। इस सबके बीच बस्ती का ग्राम्य परिवेश, आंचलिकता, शहर के किनारे बहने वाली साधारण सी शांति कुआनो नदी, खलीला- बाद के पास स्थित भुजैनिया का पोखरा आदि प्रतीक सर्वेश्वर के भोले मन को सदैव प्रभावित करते रहे।
साहित्यिक परिचय :-
समकालीन हिंदी साहित्य एवं पत्रकारिता में जहां तक जनता से जुड़े क़लमकारों का सवाल है, सर्वेश्वर दयाल सक्सेना अपनी बहुमुखी रचनात्मक प्रतिभा के साथ एक जवाब की तरह सामने आते हैं। कविता हो या कहानी, नाटक हो या पत्रकारिता, उनकी जन प्रतिबद्धता हर मोर्चे पर कामयाब है। सर्वेश्वर जी ने साहित्य के हर विधा को अपनाया था। उनसे कोई विधा छूट नहीं सका था। कविता के अतिरिक्त उन्होंने कहानी, नाटक और बाल साहित्य भी रचा। उनकी रचनाओं का अनेक भाषाओं में अनुवाद भी हुआ है।
काव्य साहित्य:-
सर्वेश्वर दयाल सक्सेना जी का साहित्यिक जीवन काव्य से प्रारंभ हुआ। वे ‘चरचे और चरखे’ स्तम्भ में दिनमान में छपते रहे। सर्वेश्वर जी एक बेहद संवेदनशील कवि थे।कहानी के बाद वे कविता लेखन के क्षेत्र में 1950 में आए। कम समय में उन्होंने अपने समय के लोगों में जो ख़ास जगह दर्ज कराई, उससे वे हिंदी कविता के प्रमुख हस्ताक्षर बन गए। 1959 में अज्ञेय के संपादन में प्रकाशित ‘तीसरा सप्तक’ के कवि के रूप में पहचाने गए। सही अर्थों में सर्वेश्वर नई कविता के अधिष्ठाता कवियों में एक थे।
कविता-संग्रह : –
काठ की घंटियाँ,1959 में प्रकाशित हुई। इसी वर्ष ‘तीसरा सप्तक’ में उनकी कविताएँ शामिल की गई। इसके बाद
बाँस का पुल, एक सूनी नाव, गर्म हवाएँ, कुआनो नदी, जंगल का दर्द, खूँटियों पर टँगे लोग, क्या कह कर पुकारूँ, कोई मेरे साथ चले और गधा आदि उनकी प्रमुख कृतियां प्रकाशित हुई हैं। कविता-संग्रह ‘खूँटियों पर टँगे लोग’ के लिए उन्हें 1983 के साहित्य अकादेमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया।
संपादन :-
शमशेर (मलयज के साथ), रूपांबरा (सहायक संपादन, संपादक : अज्ञेय जी), अँधेरों का हिसाब आदि ग्रंथों का सम्पादन किया था।उन्होंने नेपाली काव्य संग्रह ‘रक्तबीज’ का भी संपादन किया था।
बाल साहित्य :-
बच्चों के लिए उन्होंने काफ़ी साहित्य लिखा। उनके दो बाल कविता संग्रह ‘बतूता का जूता’ एवं ‘महंगू की टाई’ नाम से छप चुके हैं। इसके अलावा ‘ भों-भों खों-खों,’ और लाख की नाक, उनका बाल साहित्य भी रहा है।
उपन्यास :-
सूने चौखटे उनका प्रिय उपन्यास रहा। पागल कुत्तों का मसीहा, सोया हुआ जल उनका लघु उपन्यास रहा।
नाटक : –
बकरी, लड़ाई, अब ग़रीबी हटाओ, कल भात आएगा और हवालात उनके प्रिय नाटक रहे।
यात्रा-संस्मरण :- उन्होंने यात्रा संस्मरण भी लिखे, जो कुछ ‘रंग-कुछ गंध’ नाम से छपकर आया है।
पत्रकारिता और सम्पादन:-
सर्वेश्वर जी को ए.जी. ऑफिस, इलाहाबाद के सेक्रेटरी, जो स्वयं साहित्यिक रुचि के थे, तार देकर प्रयाग बुलाया था। सर्वेश्वर जी प्रयाग पहुंचे और उन्हें ए.जी. ऑफिस में प्रमुख डिस्पैचर के पद पर कार्य मिल गया। ऑफिस के प्रमुख अधिकारी सर्वेश्वर जी की साहित्यिक रुचियों से ख़ासे प्रभावित थे, इसके चलते उन्हें वहाँ काम में बहुत स्वतंत्रता मिली। इस प्रकार सर्वेश्वर के लिए यह नौकरी वरदान साबित हुई तथा प्रयाग के साहित्यिक-सांस्कृतिक वातावरण में उन्हें रमने एवं बेहतर रचने का मौका मिल गया था। वे ए.जी.ऑफिस में 1955 तक रहे।
तत्पश्चात ऑल इंडिया रेडियो के सहायक संपादक (हिंदी समाचार विभाग) पद पर आपकी नियुक्ति हो गई। इस पद पर दिल्ली में वे 1960 तक रहे। सन 1960 के बाद वे दिल्ली से लखनऊ रेडियो स्टेशन आ गए। 1964 में लखनऊ रेडियो की नौकरी के बाद वे कुछ समय भोपाल एवं इंदौर रेडियो में भी कार्यरत रहे। वे अध्यापन तथा आकाशवाणी में सहायक प्रोड्यूसर भी रहे ।
‘दिनमान’ एवं ‘पराग’ का सम्पादन :-
वह मानते थे कि जिस देश के पास समृद्ध बाल साहित्य नहीं है, उसका भविष्य उज्ज्वल नहीं रह सकता। सन 1964 में जब दिनमान पत्रिका का प्रकाशन आरंभ हुआ तो वरिष्ठ पत्रकार एवं साहित्यकार सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन ‘अज्ञेय’ के आग्रह पर वे पद से त्यागपत्र देकर दिल्ली आ गए और दिनमान से जुड़ गए। ‘अज्ञेय’ जी के साथ पत्रकारिता के क्षेत्र में उन्होंने काफ़ी कुछ सीखा। 1982 में प्रमुख बाल पत्रिका ‘पराग’ के सम्पादक बने।
इस बीच उनकी पत्नी विमला देवी का निधन हो गया। तत्पश्चात् सर्वेश्वर की बहन यशोदा देवी ने आकर उनकी दोनों बच्चियों को मातृत्व भाव से लालन-पालन किया। पराग के संपादक के रूप में आपने हिंदी बाल पत्रकारिता को एक नया शिल्प एवं आयाम दिया। नवंबर 1982 में पराग का संपादन संभालने के बाद वे 23 सितम्बर 1983 तक मृत्युपर्यन्त उससे जुड़े रहे। इसके अलावा सर्वेश्वर ने प्रख्यात कवि शमशेर बहादुर सिंह पर केन्द्रित शमशेर का संपादन भी किया था।
कथा साहित्य:-
सर्वेश्वर दयाल सक्सेना एक कथाकार एवं उपन्यासकार के रूप में भी हिंदी साहित्य संसार में समादृत हुए। विश्व- विद्यालीय जीवन में ही उन्हें उनकी कहानियों के लिए पुरस्कार मिले। अपना लेखक जीवन उन्होंने वस्तुतः एक कथाकार के रूप में आरंभ किया। सन 1950 तक वे कहानियां लिखते रहे। तीन-चार सालों बाद उन्होंने फिर कहानियां लिखीं। इसी समय उनका लघु उपन्यास ‘सोया हुआ जल’ छपकर आया, फिर उनका उपन्यास ‘उड़े हुए रंग’ छपा। एक अन्य कथा संग्रह ‘अंधेरे पर अंधेरा’ की ख़ासी चर्चा हुई।
नाट्य साहित्य:-
सर्वेश्वर दयाल सक्सेना ने एक नाटककार के रूप में अपनी अलग पहचान दर्ज कराई। उनके नाटकों में ‘बकरी’ सर्वाधिक चर्चित हुआ, जिसके ढेरों मंचन हुए। उनके नाटकों में राजनीतिक विद्रूपताओं एवं यथास्थितिवाद के ख़िलाफ़ तीखा व्यंग्य मिलता है। वे अपने पात्रों के माध्यम से देश की सड़ांध मारती राजनीतिक व्यवस्था पर सीधी चोट करते नजर आते हैं। इसके अलावा उन्होंने लड़ाई, अब ग़रीबी हटाओ, कल भात आएगा, हवालात, रूपमती बाजबहादुर, होरी घूम मचोरी नामक नाटक एवं एकांकी लिखे।
डा.कृष्णदत्त पालीवाल का अभिमत:-
सर्वेश्वर ने नाटक, उपन्यास, कहानी के समान पत्रकारिता के क्षेत्र में भी अनेक ऊँचाइयां प्राप्त की लेकिन उनका कवि व्यक्तित्व ही सर्वाधिक प्रखर है। प्रख्यात आलोचक डॉ. कृष्णदत्त पालीवाल मानते हैं कि “समसामयिक जीवन-संदर्भों, समस्याओं से सीधे जुड़ने के कारण उनकी ताजी संवेदनात्मक क्षमता एक क्षमता संपन्न कवि के काव्य को नवीन विचारों-दृष्टियों से भरा-पूरा बना रही है ।”
चयनित प्रमुख कविताएं :–
1.ताजी कविता :-
सर्वेश्वर की कविता में भाषा की कामधेनु का दूध इतना ताजा एवं जीवनप्रद है कि नई कविता का संसार उससे पुष्ट ही हुआ है। सामाजिक परिवर्तन को लगातार नजरुल इस्लाम की तरह अराजकतावादी स्वर की तरह पहचानते हैं। सामाजिक व्यवस्था के विद्रोहपूर्ण क्षण में वे अपने से भी विद्रोह करते हैं–
“मैं जहां होता हूँ
वहाँ से चल पड़ता हूँ
अक्सर एक व्यथा
एक यात्रा बन जाती है।”
अपनी कविता और अपने उद्देश्य को वे पूरे खुलेपन से स्वीकारते हैं और कहते हैं–
“अब मैं कवि नहीं रह
एक काला झंडा हूँ ।
तिरपन करोड़ भौंहों के बीच मातम में
खड़ी है मेरी कविता।”
सुनना चाहता हूँ
एक समर्थ सच्ची आवाज़
यदि कहीं हो
अब मैं कुछ कहना नहीं चाहता,
सुनना चाहता हूँ
एक समर्थ सच्ची आवाज़
यदि कहीं हो।
अन्यथा
इसके पूर्व कि
मेरा हर कथन
हर मंथन
हर अभिव्यक्ति
शून्य से टकराकर फिर वापस लौट आए,
उस अनंत मौन में समा जाना चाहता हूँ
जो मृत्यु है।
‘वह बिना कहे मर गया’
यह अधिक गौरवशाली है
यह कहे जाने से –
‘कि वह मरने के पहले
कुछ कह रहा था
जिसे किसी ने सुना नहीं।’
2.तुम्हारे साथ रहकर :-
अक्सर मुझे ऐसा महसूस हुआ है
कि दिशाएँ पास आ गई हैं,
हर रास्ता छोटा हो गया है,
दुनिया सिमटकर
एक आँगन-सी बन गई है
जो खचाखच भरा है,
कहीं भी एकांत नहीं
न बाहर, न भीतर।
हर चीज़ का आकार घट गया है,
पेड़ इतने छोटे हो गए हैं
कि मैं उनके शीश पर हाथ रख
आशीष दे सकता हूँ,
आकाश छाती से टकराता है,
मैं जब चाहूँ बादलों में मुँह छिपा सकता हूँ।
तुम्हारे साथ रहकर
अक्सर मुझे महसूस हुआ है
कि हर बात का एक मतलब होता है,
यहाँ तक कि घास के हिलने का भी,
हवा का खिड़की से आने का,
और धूप का दीवार पर
चढ़कर चले जाने का
तुम्हारे साथ रहकर
अक्सर मुझे लगा है
कि हम असमर्थताओं से नहीं
संभावनाओं से घिरे हैं,
हर दीवार में द्वार बन सकता है
और हर द्वार से पूरा का पूरा
पहाड़ गुज़र सकता है।
शक्ति अगर सीमित है
तो हर चीज़ अशक्त भी है,
भुजाएँ अगर छोटी हैं,
तो सागर भी सिमटा हुआ है,
सामर्थ्य केवल इच्छा का दूसरा नाम है,
जीवन और मृत्यु के बीच जो भूमि है
वह नियति की नहीं मेरी है।
दर्द उठे तो, सूने पथ पर
पाँव बढ़ाना, चलते जाना ।
हंसा ज़ोर से जब, तब दुनिया
बोली इसका पेट भरा है
और फूट कर रोया जब
तब बोली नाटक है नखरा है
जब गुमसुम रह गया, लगाई
तब उसने तोहमत घमंड की
कभी नहीं वह समझी इसके
भीतर कितना दर्द भरा है
दोस्त कठिन है यहाँ किसी को भी
अपनी पीड़ा समझाना
दर्द उठे तो, सूने पथ पर
पाँव बढ़ाना, चलते जाना ।।
3.प्रेम :-
कितना अच्छा होता है
एक-दूसरे को बिना जाने
पास-पास होना
और उस संगीत को सुनना
जो धमनियों में बजता है,
उन रंगों में नहा जाना
जो बहुत गहरे चढ़ते-उतरते हैं।
शब्दों की खोज शुरू होते ही
हम एक-दूसरे को खोने लगते हैं
और उनके पकड़ में आते ही
एक-दूसरे के हाथों से
मछली की तरह फिसल जाते हैं।
हर जानकारी में बहुत गहरे
ऊब का एक पतला धागा छिपा होता है,
कुछ भी ठीक से जान लेना
ख़ुद से दुश्मनी ठान लेना है।
कितना अच्छा होता है
एक-दूसरे के पास बैठ ख़ुद को टटोलना,
और अपने ही भीतर
दूसरे को पा लेना।
लेखक परिचय:-
(लेखक भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण, में सहायक पुस्तकालय एवं सूचनाधिकारी पद से सेवामुक्त हुए हैं। वर्तमान समय में उत्तर प्रदेश के बस्ती नगर में निवास करते हुए सम-सामयिक विषयों,साहित्य, इतिहास, पुरातत्व, संस्कृति और अध्यात्म पर अपना विचार व्यक्त करते रहते हैं।